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दिल्ली में बंदर ढूंढ़ें अपना घरोंदा

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संतुलन जीवन के हर परिप्रेक्ष में आवश्यक है। अगर बात पर्यावरण की हो तब यह और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि इसकी अनुपस्थिति में कोई भी जीव अपना जीवन सुचारू रूप से व्यतीत नहीं कर सकता है। जीव से तात्पर्य हर उस पदार्थ से है जिसमें प्राण वायु का संचरण होता हैं जो स्वयं को पुनः उत्पन्न कर सकता है। ऐसा ही एक जीव है बंदर। बंदरों का जिक्र अक्सर हमें इतिहास के पन्नों में, कथाओं और कहानियों में मिल ही जाता है। यहां तक कि बंदर बच्चों के कंप्यूटर पर खेले जाने वाले विडियों गेम्स तथा कार्टून पात्रों में भी एक पसंदीदा चरित्र है। कहा जाता है कि मानव, बंदर जाति की ही एक विकसित प्रजाति है। कुछ लोग इन बंदरों को मानव जाति के पूर्वज भी बता देते हैं जिसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं फिर भी बोलचाल में इन्हें हमारे पूर्वज कह दिया जाता है। जबकि कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य सीधे बंदरों से इंसान नहीं बना बल्कि बन्दर, लंगूर, चिम्पैंजी और इंसान के पूर्वज एक ही थे और यही पूर्वज अलग-अलग माहौल या वातावरण में जाकर अपनी-अपनी जरूरत के हिसाब से अलग-अलग प्रजातियों — मनुष्य, चिम्पैंजी, गोरिल्ला, लंगूर या बन्दर के रूप में विकसित हो गए। 

रामायण में भी बंदरों की अहम् भूमिका का व्याख्यान है। जब हनुमान जी श्री राम और लक्ष्मण जी से पहली बार वन में मिले तो उन्होंने स्वयं का परिचय देते हुए स्वयं को एक वानर बताया। वानर, कपि, हरि, प्लवंग, आदि अनेक शब्द हमें पढ़ने को मिल जाते हैं जिन सभी शब्दों का अर्थ आज के शब्दकोश बन्दर बताते हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी सुनने को मिल जाता है कि ये शब्द वानर ना होकर वन-नर रहा होगा जिसका अर्थ होगा वन के नर। क्योंकि धार्मिक ग्रंथों में इन वानरों का उल्लेख विशालकाय प्राणी के रूप में वर्णित है। रामायण में भगवान श्री राम की सहायता करने वाले यह वानर ही थे जिन्होनें वानर सेना के रूप में माता सीता का पता लगाने तथा दुष्ट रावण को परास्त करने में भगवान श्री राम की सहायता की थी। परन्तु आज यह वानर जाति अपने आवास के लिए सड़कों, इमारतों पर यहाँ-तहाँ घूमने और अपने लिए घरोंदा ढूंढ़ने के लिए  ही मजबूर हैं।

कभी बच्चों को बंदर दिखाने के लिए चिड़ियाघर जाने की जरूरत पड़ती थी या फिर कभी कोई मदारी बंदर लेकर गली-मोहल्ले में आ जाए तो बच्चों की भीड़ लग जाया करती थी और बच्चे इस खेल को तमाशा समझ, देखकर उसका आनंद लेते थे, परंतु आज परिस्थिति बदलती जा रही है और बंदरों का दिल्ली की सड़कों पर, इमारतों पर देखा जाना आम बात हो गई है। फिर भी मनुष्य की आस्था आज भी इनके साथ सहसा ही जुड़ी हुई प्रतीत होती है। कभी कोई रास्ते में इन्हें देखकर हनुमान जी का रूप समझ कर नमस्कार करता हुआ नजर आ जाता है तो कोई इन्हें प्रेम स्वरूप फल, गुड़, चने आदि खिलाता दिखाई दे ही जाता है और इस तरह यह मूक प्राणी अपना भरण पोषण कर ही लेते हैं। 
यह भी समय की एक विडंबना है कि एक तरफ मनुष्य इनके पौराणिक स्वरूप को हनुमानजी से जोड़ते हुए मंदिरों में पूजा करता नज़र आता है वहीं दूसरी ओर अगर घरों की छत्तों पर नजर आ जाए तो उन्हें भगाता हुआ नजर आता है। आज का युग विज्ञान का युग है, हर जीव को सम्मान देने का युग है तो क्या हमें इस मासूम जीव को यूं ही उसे हालात के और समय के भरोसे छोड़ देना चाहिए या फिर इनके विकास और पुनर्वास के बारें में सोचना चाहिए?
कुछ वर्ष पहले तक कभी-कभार एक या दो बंदर कहीं दिख जाते थे, तो आश्चर्य होता था कि आखिर यह बंदर यहां आया कैसे? परंतु पिछले कुछ वर्षों से बंदरों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इन्हें न केवल संसद के आस-पास स्थित कार्यालयों की इमारतों में या उनकी दीवारों पर देखा जा सकता है बल्कि संपूर्ण दिल्ली में बंदरों का सड़कों, घरों, पार्कों में या ऊंची-ऊंची इमारतों पर कूदते-फर्लांगते दिखना आम बात हो गई है, जो दिल्ली के निवासियों के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। चिंता का विषय ये बंदर नहीं हैं, बल्कि यह है कि आखिर यह आज इस तरह से रहने को मजबूर क्यों हैं? किसने इनसे इनका रैन-बसेरा, या ठौर-ठिकाना छीन लिया है? किसने इन्हें उनकी जीवन यापन की व्यवस्था को ही बदल देने पर मजबूर कर दिया है?

मुझे यह बंदर मुझसे कुछ कहते प्रतीत होते हैं जैसे वह कह रहे हो कि आखिर हम कहां जाएं? हम तुम्हें डराना नहीं चाहते और न ही तुम्हें परेशान करना चाहते हैं बल्कि हम तो स्वयं अपना घरोंदा ढूंढ़ रहे हैं जो आजकल हमें मिल नहीं रहा है। हम उन वृक्षों को, लताओं को ढूंढ़ रहे हैं जिन पर हम उछलते-कूदते थे, जिनकी डालियों पर लटके हुए फलों को तोड़कर अपना जीवन यापन करते थे और जब थक जाते तो उन वृक्षों की घनेरी छाया में उनकी डालियों पर लटक कर विश्राम कर लेते थे। इसके साथ-साथ अपनी अगली पीढ़ी को अपनी प्रकृति और संस्कृति से भी अवगत कराते थे। हम अपने उस प्राकृतिक घरोंदे को ढूंढ़ रहे हैं।  इसलिए जब कभी तुम्हारे बच्चों के खेलने वाले पार्कों में वृक्ष दिखाई देते हैं तो उन्हें अपना घरोंदा समझ वहां छाया पाने और खेलने आ जाते हैं, जब वह भी नहीं दिखाई देते तो सड़क के किनारे लगी ग्रिल को डाली समझ कर उस पर लटक कर ही सो जाते हैं। भरी धूप में भूखे-प्यासे इधर से उधर घूमते हुए फलों की दुकानों के आस-पास/इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं और जब कुछ खाने का नहीं मिलता तो हम खाने की चीजों को छीनकर खा लेते हैं और यदि हमें कोई मारता या डंडा दिखाता है तो अपनी सुरक्षा के लिए हम आक्रामित भी हो जाते हैं । मगर इन सबके लिए कोई हमें समझाए कि हमारा कसूर क्या है?  मुझे उनकी बात सही भी लगती है, फिर उनसे सहानुभूति भी होती है और तभी मेरे दिल  से यह आवाज आती है कि गुनहगार यह जीव नहीं अपितु हम स्वार्थी मनुष्य ही हैं जो अपने स्वार्थ में इतना मस्त हैं कि अपनी बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को पूरा कराने के लिए लगातार जंगलों को काटें जा रहे हैं। अपने लिए आशियाना बनाने के लिए इन मासूम जीवों का घरोंदा, उनकी विरासत खत्म करते जा रहे हैं। और हालात आज इतने खराब हो गए कि यह जीव आज सड़कों पर इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर हैं। 

निश्चित रूप से मनुष्य के लिए आज उनका इधर-उधर घूमना, दफ्तरों में दाखिल होना उनके आतंक से कम नहीं दिखाई देता हो परन्तु एक बुद्धिजीवी होने के नाते इस समस्या पर गहराई से सोचने का और उचित एहतियाती कदम उठाने का दारोमदार भी हम मनुष्य पर ही है ताकि हम उन्हें उनका घरोंदा दे सकें। अन्यथा हमें किसी का भी घर छीनने का कोई हक नहीं है।  इस प्रकृति पर सभी जीवों का समान हक है और संतुलित रूप में रहने पर ही सभी के जीवन  का  निर्बाध विकास संभव है। अगर मनुष्य के किसी भी कदम से इस पारिस्थितिकी में असंतुलन पैदा होगा तो वह निश्चित रूप से उसके लिए हानिकारक होगा। इसलिए हमें सच्चे मन से उनके आतंक से बचने के लिए उनके पुनर्वास के बारे में योजना बनानी होगी और महतवपूर्ण कदम उठाने होंगे। बंदरों की इस समस्या से निजात पाने के लिए हमें उनकी जनसंख्या नियंत्रित करने के बारे में उचित कदम उठाने होंगे तथा इनके पुनर्वास के लिए नेशनल पार्क या अन्य कोई ऐसी व्यवस्था करनी होगी जहां इन बंदरों को शहर से कहीं दूर ले जाकर इन्हें जंगल जैसी प्राकृतिक व्यवस्था दी जा सके और शहर के लोगों को इनके आतंक से निजात मिल सके। इसके साथ-साथ हमें इससे आगे इनकी बढ़ती जनसंख्या के बारे में भी सोचना होगा ताकि उस पर भी रोक लगाई जा सके क्योंकि बंदर एक ऐसा जीव है जिसकी शारीरिक संरचना न केवल मनुष्य की तरह है अपितु वह अपने पैरो का प्रयोग मनुष्य के हाथों की तरह करके मनुष्य की नकल कर सकता है और उसके पास ऊंची-ऊंची छलांगें लगाने की भी अद्भूत क्षमता है जो उसे और भी बलशाली बनाती है जो भविष्य में मनुष्य के लिए संकट का कारण बन सकती है। समस्या की वज़ह जो भी रही हो परन्तु समाधान दोनों के लिए आवश्यक है। आखिर यह मासूम जीव अपनी व्यथा किससे कहें, कैसे कहे, कि आज वह जिस तरह की जीवन शैली जी रहा है जिससे हम मनुष्य़ परेशान हो रहे हैं वह उसके लिए भी कितना आहत करने वाली है।  
-राखी सक्सेना निगम

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